
Painting by R.
हमेशा की तरह, राजू ने “मज़दूर स्मारक पार्क” के पास अपनी साइकिल रोक दी। उसने साइकिल को स्टैंड पर लगाया। स्मारक के पास एक सीधी कतार में कई सफेद रंग के घर बने हुए थे, जिनमें उसे रोज़ अख़बार डालना होता था।
हालाँकि बाकी घरों में तो राजू अख़बार को रबर में लपेटकर सड़क से ही फेंक देता था, लेकिन इस घर में वह खुद अंदर जाकर अख़बार डालता था। शायद इस घर से राजू का कुछ अनोखा नाता था।
इस कतार में बने सारे सफेद घरों में से वह तीसरे नंबर का घर था, जहाँ वह खुद अंदर जाकर अख़बार डालता था। साइकिल के दाहिने हैंडल में टंगे झोले में से राजू ने अंग्रेज़ी के दो अख़बार निकाले और घर के अंदर चल पड़ा।
अंदर घुसते ही कुछ सीढ़ियाँ थीं… और उसके बाद बालकनी के पास लगा हुआ मुख्य दरवाज़ा… जहाँ उसे ये अंग्रेज़ी का अख़बार रोज़ाना डालना होता था। बालकनी में जाकर राजू ने हमेशा की तरह एक हरे पौधे के गमले के सामने रखी हुई कुर्सी पर अख़बार रख दिया… और फिर घर के मुख्य दरवाज़े की डोरबेल को दो बार दबाकर वापस नीचे अपनी साइकिल के पास आ गया।
टीन-टिन… टीन-टिन…
जब तक राजू वापस नीचे साइकिल के पास पहुँचता, तब तक घर के अंदर से वह लड़की हमेशा की तरह डोरबेल की आवाज़ सुनकर बालकनी में आ जाती… और राजू को नीचे खड़ा देख एक हल्की-सी मुस्कान देकर वापस अंदर चली जाती।
साइकिल के दोनों हैंडल को थामे, राजू अंदर ही अंदर मुस्कुरा दिया… और फिर साइकिल की टिन-टिन की घंटी बजाते हुए अगली गली की ओर निकल गया।
ये सिलसिला कई महीनों से चल रहा था। शायद राजू को प्यार-सा हो गया था। किससे? वह खुद भी ज़्यादा नहीं जानता था उस लड़की के बारे में… तो यह कहना उचित होगा कि शायद उसे उस लड़की की मुस्कान से प्यार हो गया था।
उस लड़की का वह दो सेकंड का मुस्कुराता चेहरा देखकर, राजू अपने सारे क़र्ज़, ग़म, दुःख और परेशानियाँ भूल जाता था — इस मज़दूरों के शहर में। उसे इन सभी परेशानियों के दूसरी ओर एक नई ज़िंदगी सी दिखाई देती थी।
लेकिन उस लड़की का क्या?
वह राजू को सिर्फ़ एक अख़बारवाला समझती थी या कुछ और?
शायद वह लड़की भी किसी दुविधा में थी?
इन दोनों ने शायद कभी एक-दूसरे की आवाज़ तक नहीं सुनी थी।
मौका ही नहीं होता था बात करने का। जब तक वह लड़की अख़बार लेने बालकनी में आती, तब तक राजू नीचे जा चुका होता। इन दोनों की ओर से मानो डोरबेल ही एक-दूसरे से बात करती थी।
फिर भी, इतनी ख़ामोशी के बावजूद, दोनों के बीच कितनी हलचल थी!
और उधर राजू… वह तो दुविधा में था ही। लेकिन अपनी बात कह पाना उसके लिए एक बड़ी समस्या थी। उसकी न तो इतनी हिम्मत थी, और न ही सही मायनों में कोई “हैसियत”, कि वह उस बड़े घर की लड़की को सामने खड़े होकर अपने दिल की बात कह सके।
राजू ने इस बात को कहने के लिए एक तरकीब निकाली।
अगले दिन राजू फिर से हाज़िर था — इस बार दो नहीं, बल्कि तीन अख़बारों के साथ। दो अंग्रेज़ी के थे और तीसरा हिंदी का। लेकिन वह हिंदी का अख़बार नहीं था — वह एक गुलाब का फूल था, जो हिंदी के एक पुराने अख़बार से बनाया गया था।
राजू ने उस कागज़ के गुलाब को अंग्रेज़ी के दोनों अख़बारों के बीच लपेटा और बालकनी में रख आया… और आज उसने डोरबेल नहीं बजाई।
वह धीरे-धीरे साइकिल लेकर लौट गया।
डरा हुआ था वह।
प्यार में इज़हार के बाद डांट पड़ने, चप्पल खाने, या बेइज़्ज़ती होने का डर तो स्वाभाविक होता है। लेकिन राजू के लिए यह मामला और भी भयावह था। दोनों के बीच कोई बराबरी नहीं थी।
ख़ैर…
अगले दिन जब वह उस सफेद घर की बालकनी में अख़बार रखने गया, तो जो उसने देखा, वह देखकर चौंक गया।
उसने देखा कि उसका बनाया हुआ कागज़ का गुलाब लाल रंग से रंगा हुआ था।
राजू को ऐसा लगा जैसे वह कागज़ का गुलाब अब असली फूल बन गया हो।
हाँ, वह गुलाब अब कागज़ का नहीं रहा था। उसमें किसी ने रातों-रात एक नन्ही जान सी डाल दी थी।
वह कागज़ का गुलाब बालकनी में रखे एक हरे पौधे के गमले के बीचों-बीच रखा था… जैसे गमले में सचमुच एक गुलाब खिला हो।
राजू ने उसे उठाया — नहीं, नहीं…
राजू ने उस लाल गुलाब को उठाया…
फिर घर के मुख्य दरवाज़े की डोरबेल तीन बार बजाई… और वापस अपनी साइकिल के पास आ गया।
हमेशा की तरह, वह लड़की आज भी बालकनी में आई, राजू को एक मीठी मुस्कान दी… और अख़बार के साथ वापस अंदर चली गई।
बदले में राजू ने भी एक नर्वस सी मुस्कान दे दी।
उसने उस लाल गुलाब को अपनी साइकिल की बायीं ओर की नीली जेब में संभालकर रख लिया… और फिर साइकिल की घंटी टिन-टिन… टिन-टिन… टिन-टिन... बजाते हुए निकल पड़ा।
साइकिल की घंटी वह यूँ बजा रहा था… मानो वह कोई प्यार का गीत गा रहा हो।
Kumar is a content creator and stand up comedian.