
Image- Kumar
रात के यही कोई 4 बज रहे थे, और अचानक ज़मीन पर बिछे हुए बिस्तर के दाईं तरफ रखी छोटी-सी अलार्म घड़ी की घंटी बजने लगी। मेरा ख़याल है, इसे “रात” कहना ठीक नहीं होगा। इस बस्ती में 4 बजे का मतलब तो सुबह होता है, जब सभी मजदूर शहर के सिविल लाइन्स में बनी बड़ी-बड़ी कोठियों में काम करने के लिए तैयार होने लगते हैं। ज़्यादातर लोग घरेलू कामगार हैं, जिन्हें “कामवाली” भी कहा जाता है। हालाँकि, कई मर्द भी सफ़ाई और रसोईघर का काम करते हैं, लेकिन पता नहीं क्यों इस घरेलु काम को सिर्फ महिलाओं से ही जोड़ा जाता है।
पूर्णिमा ने घड़ी का अलार्म बंद किया और अपनी छोटी बहन चाँदनी को उठकर तैयार होने के लिए कहकर झोपड़पट्टी के बाहर चली गई। थोड़ी ही देर में वह फटाफट तैयार होकर घर से निकल गई। फिर अचानक वापस आई, अलार्म घड़ी दोबारा बजाई और फिर चली गई, क्योंकि उसे पता था कि अगर उसने ऐसा नहीं किया, तो उसकी बहन सोई ही रह जाएगी।
पूर्णिमा की बस्ती, मजदूर शहर में बन रहे एक मेट्रो स्टेशन के ठीक पीछे बसी हुई थी। इस बस्ती की हालत और वहाँ रहने वाले लोग इस बात की खुली गवाही देते थे कि वे किस तरह की बदहाली में जी रहे हैं। सालों में अगर कुछ बदला था, तो वह था मजदूर शहर में मेट्रो का निर्माण, जिसे शहर की सरकार आधुनिकता और प्रगति का प्रतीक मानती थी।
बस्ती में बिजली नहीं थी, और मेट्रो के निर्माण के बाद सड़क के किनारे बड़े-बड़े लोहे के बोर्ड लगा दिए गए थे। इन बोर्डों की वजह से अब अगर कोई बस्ती की ओर देखे भी, तो इसका कोई निशान नहीं दिखाई देता। वैसे भी मजदूर शहर में इस बस्ती के बारे में वहाँ रहने वालों के अलावा कोई और जानता भी नहीं था। और शायद जानने की ज़रूरत भी नहीं थी। इस बस्ती में ज़्यादातर लोग मजदुर थे जो कोठियों में सफ़ाई और बर्तन धोने का काम करते थे, जिसकी अहमियत उतनी ही थी, जितनी एक महिला की अपने घर में होती है। ख़ैर…
पूर्णिमा जब कोठियों की ओर जाने के लिए बस्ती की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से निकलती, तो रास्ते में इधर-उधर लेटे कुत्तों के झुंड उसे ऐसे देखते जैसे वह उनके ही परिवार का हिस्सा हो। वे सब साथ-साथ उसी बस्ती में रहते थे। रात के अंधेरे में भी ये कुत्ते कोई आवाज़ नहीं करते, पूर्णिमा पर भौंकने की तो बात ही दूर थी।
इस अंधेरे से निकलकर, पूर्णिमा मजदूर शहर के उन रोशन गलियारों और ऊँची कोठियों में पहुँचती, जहाँ अमीर और बड़े रईस लोग रहते हैं। यही वह इलाका था, जहाँ पूर्णिमा और उसकी बस्ती के सैकड़ों लोग सफ़ाई और बर्तन धोने का काम करते थे।
कोठी में घुसने से पहले पूर्णिमा को अपनी पहचान का सबूत देना पड़ता था, और तब जाकर उसे अंदर जाने की इजाज़त मिलती। यह कोठी चारों तरफ़ ऊँची दीवारों से घिरी होती, जिनके ऊपर नंगे तार और शीशे के टुकड़े लगे होते थे, और सर पर हमेशा एक कैमरा बंदूक की तरह तैनात रहता था।
उसकी अगली भिड़ंत कोठियों में पल रहे पालतू कुत्तों से होती, जो उसे देखते ही ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगते, जैसे कोई चोर घुस आया हो। दूसरी ओर, उन कोठियों में रहने वाले लोग गहरी नींद में भी कुत्तों के भौंकने की आवाज़ को अनदेखा कर देते, जैसे वे किसी अजनबी पर भौंक रहे हों।
पूर्णिमा हर दिन की तरह इन कुत्तों की आवाज़ को अनसुना करती और घर के बाहर अपनी चप्पल निकालकर हाथ में थामे अंदर चली जाती। सबसे पहले वह झाड़ू लगाती, फिर घर के सारे जूठे बर्तन इकट्ठा करके धोती, और आखिर में पूरे घर में बैठ-बैठकर हाथ से पोछा लगाती। यही काम वह हर रोज़ पाँच और घरों में दोहराती थी। इसके बाद वह वापस अपनी बस्ती लौट जाती।
पूर्णिमा और बाकी बस्ती के लोगों की काम करने की यही स्थिति थी—वे अंधेरी रात में ही कोठियों में पहुँच जाते और वहाँ के लोग जागने से पहले ही अपना काम ख़त्म करके लौट आते।
दूसरी ओर, बड़ी कोठियों में सो रहे लोगों की आँख तब खुलती, जब पूर्णिमा जैसी औरतें और मर्द उनका घर चमका चुके होते। जब वे अपने-अपने बिस्तर से उठते, तो उन्हें केवल पूर्णिमा का किया हुआ काम दिखता—पूर्णिमा नहीं।
Kumar is a content creator and stand up comedian.