“Neither a village nor a city”
Milk went, Nandini came,
Ragi went, Prestige** came,
Rice went, Shobha*** came, my mother!
Green turned to yellow belt, my mother!
Milk went, Nandini came,
Ragi went, Prestige** came,
Rice went, Shobha*** came, my mother!
Green turned to yellow belt, my mother!
मैं मजदूर हूँ मुझे देवों की बस्ती से क्या!अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाये, अम्बर पर जितने तारे उतने वर्षों से,मेरे पुरखों ने धरती का रूप सवारा; धरती को सुन्दर करने की ममता में,बीत चुका है कई पीढियां वंश हमारा Ι अपने नहीं अभाव मिटा पाए जीवन भर,पर औरों के सभी अभाव मिटा सकता
मजदूर ज़्यादा गिरता इससे पहले ही मर गया,
इस मरने पर कुछ आवाज़ ज़िंदा हुई,
कुछ कलम ऊपर आये
कुछ टेलीविजन ने भी शोर मचाये
कुछ ने की शोक सभाएं…
कविताएँ कभी पुरानी नहीं होतीं, भले ही उनके संदर्भ बदल जाएँ। जब भी हम इस कविता को पढ़ेंगे, तो हमारे दिमाग में गाँव के अकाल की नहीं, बल्कि 2020 के कोविड महामारी के बाद की तस्वीरें आएँगी।